जनजातीय गौरव दिवस पर जानिए कितना अलग है बिरसाइत धर्म, इसका पालन करना है मुश्किल
Birsa Munda Birth Anniversary: बिरसा मुंडा को उन शख्सियतों में जिन्होने आदिवासियों के लिए ब्रिटिश शासन से लड़ाई लड़ी और उनके अधिकारों से समझौता नहीं किया था। यही वजह हैं कि उनका नाम आज भी गौरव के साथ लिया जाता हैं। . झारखंड के खूंटी ज़िले में जन्मे बिरसा मुंडा के परिवार के ज्यादातर लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया। यहाँ तक उनके पिता व भाई ने भी अपना लिया था।
मौसी के घर खटंगा गांव में बीता थी बिरसा मुंडा का बचपन जहाँ पर उनकी मुलाकात ईसाई धर्म के प्रचारक से हुआ था। वो अपने प्रवचन में मुडाओं की पुरानी व्यवस्था की आलोचना करते थे। जो बिरसा मुंडा को पंसद नहीं आयी। शुरुआती दौर की पढ़ाई मिशनरी में करने के बाद वो वापस आदिवासी जीवन में लौट आए थे।
बिरसाइत धर्म कैसा बना-
बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन' किताब के लेखक और प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे कुमार सुरेश सिंह लिखा हैं कि- 1894 में वो उस आंदोलन में जुड़े जिसमें आदिवासियों की जमीन और जंगलों के अधिकारों की मांग कर रहे थे। एक नए धर्म की शुरुआत की और नाम रखा बिरसाइत था। इसे मानने वालों को बिरसाइत कहा गया. 1895 में उन्होंने अपने धर्म के प्रचार की जिम्मेदारी अपने 12 शिष्यों को दिया हैं।
इस धर्म को लेकर भी तीन पंथ है। जिसमें से एक पंथ के लोग बुधवार को पूजा करते हैं। तो वहीं दूसरे रविवार को और तीसरे गुरुवार को करते हैं। जबकि इनमें रविवार को पूजा करने वाले समर्थकों की संख्या अधिक हैं।
ये धर्म काफी मुश्किल हैं इसलिए इसे मानने वालो की संख्या बहुत कम हैं। क्योकि इस धर्म को मानने वाले लोग मांस, मदिरा, बीड़ी और खैनी तक छूते भी नहीं हैं। इसके अलावा बाजार में बनी चीजें नहीं खाते हैं। तथा किसी दूसरे शख्स के घर में बना खाना नहीं खाते हैं। गुरुवार के दिन फूल, पत्ती और दातुन तोड़ना भी मना पड़ा हैं। तो वहीं पहनने के लिए हल्के रंग के सूती कपड़े का प्रयोग करते हैं।