Education News: फ़ादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर रह गये। वो भारत आये तो थे एक ईसाई धर्म प्रचारक बनकर लेकिन भारत आकर उनको रामचरित मानस ने इतना ज्यादा प्रभावित किया कि वो यहाँ आकर रामकथा को पढ़ने के लिए व भगवान राम के बारे में जानने के लिए उन्होने अवधी व ब्रज भाषा सीखी।

कौन थे फादर कामिल बुल्के-

फादर कामिल बुल्के के बारे में जानते तो सभी लोगो को पता होगा। लेकिन कोई ये नहीं जानता हैं कि वो बेल्जियम में पैदा हुए थे। फादर कामिल बुल्‍के उन्‍हीं में से एक प्रख्‍यात विद्वान थे। बुल्‍के ने बेल्जियम में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की थी। इंजीनियर बनने के बाद नौकरी तो उन्‍होंने नहीं की, बल्कि धार्मिक कार्यों में रुचि रखने लगे और 1930 में वे ईसाई धर्म के प्रचारक बन गये थे। भारत वे ईसाई धर्म का प्रचार करने ही पहुंचे थे।

फादर बुल्‍के अपनी मातृभाषा से बेहद प्रेम करते थे, लेकिन भारत आकर यहां इतने ज्यादा प्रभावित हो गये कि उन्होने हिंदी के प्रख्‍यात साहित्‍यकार बन गए। बेल्जियम में 1909 में उनका जन्‍म हुआ था।1934 में वे भारत आए और 16 वर्ष बाद 1950 में उन्‍हें भारत की नागरिकता मिली थी। बेल्जियम में जन्मे बुल्के की कर्मस्थली झारखंड की राजधानी राँची में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर इस हफ़्ते विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदी के इस साधक को याद किया था।

रॉंची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया था। 1940 में उन्‍होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से संस्कृत में विशारद किया. फिर 1944 में कलकत्ता से संस्‍कृत में ही एमए किया. इसके बाद 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी में पीएचडी किया था। जिसका विषय था रामकथा की उत्पत्ति और विकास. रामकथा पर प्रमाणिक शोध के लिए भारत सरकार ने उन्‍हें केंद्रीय हिंदी समिति का सदस्‍य बनाया गया था।

रामकथा पर किया शोध-

रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के क़रीब 300 रूपों की पहचान की थी। रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया था। इसके साथ ही 1974 में उन्‍हें देश के तीसरे सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

फादर बुल्के ने लिखा-

फादर बुल्के ने एक जगह लिखा हैं कि- "मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया."