Khudiram Bose Birth Anniversary: भारत में बहुत-से ऐसे क्रांतिकारी हुए हैं। जिनके नाम शायद ही कोई जानता होगा। जो हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए थे। जहाँ भारत में एक तरफ महात्मा गाँधी शांति पूर्वक आंदोलन कर रहे थे। तो वहीं दूसरी तरफ क्रांतिकारियों ने अंग्रेजो के नाक में दम कर रखा था। उन्ही में एक थे। खुदीराम बोस महज 16 बरस के थे, जब 1905 में उन्होंने रेवोल्यूशन पार्टी में शामिल हो गए थे। जब वो छोटे थे तभी उनके सर से माँ-बाप का साया हट गया था। नौवी की पढ़ाई करते समय उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ जगह-जगह पर्चे बाँटने शुरू कर दिया। 1906 में ऐसा करते हुए वो पकड़े गए थे. ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन बालिग नहीं होने के कारण इन्हें छोेड़ दिया।

इस गिरफ्तारी के बाद खुदीराम बोस और मुखर हो गए। और उन्होने 1907 में बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट में साथ दिया। कोलकाता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंट क्रांतिकारियों के प्रति और ज्यादा सख्ती दिखानी शुरू कर दी थी। जिसके बाद क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड की हत्या की योजना बनाई। इस कार्य के लिए चुना गया खुदीराम बोस को और प्रफुल्ल चंद चाकी को लेकिन वो लोग पकड़े गए।

खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद बिहार के मुजफ्फरपुर जिले पहुंच गए। और दोनों ने किंग्सफोर्ड पर नजर रखना शुरू कर दिया था। एक दिन मौका पाकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया था।वो तारीख थी 30 अप्रैल 1908. दोनों को लगा कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड मारा गया, लेकिन उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिला कैनेडी और उसकी बेटी भी मारी गई थी। जिसका अफसोस उन दोनो को बहुत ज्यादा हुआ था।

अंग्रेजो द्वारा इन दोनो पर शक होने की वजह से 25 मील तक भागने के बाद पूसा रोड रेलवे स्टेशन के पास सिपाहियों ने खुदीराम और प्रफुल्ल चंद को घेर लिया गया। जहाँ खुद को चारों ओर से घिरा देखकर प्रफुल्ल चंद ने वही किया जो चंद्रशेखर आजाद ने किया था। उन्होंने खुद को गोली मार ली और वहीं शहीद हो गए। जबकि खुदीराम बोस पकड़े गए। खुदीराम बोस पर हत्या का केस चलाया गया था। तो वहीं 5 दिन मुकदमा चलने के बाद 13 जून 1908 को उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी। फांसी की सजा सुनाने के बाद वो दुखी नहीं हुए और इस दिन को उन्होने किसी उत्सव की तरह मनाया। इस दिन के लिए उन्होंने एक नई धोती मंगवाई थी। मुज्जफरपुर जेल में उन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी की सजा सुनाई गई थी। फांसी के समय उनकी आयु 19 वर्ष भी नहीं थी।

उनकी मृत्यु के बाद युवको में उनकी धोती काफी प्रसिद्ध हुई थी। युवाओं द्वारा खुदीराम की प्रीटेंट धोती पहनना गर्व की बात मानते थे। इसके बाद अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा और तेज हो गया।